Thursday, March 8, 2012

और अब नरेन्द्र कुमार

सत्येन्द्र कुमार की याद है आपको, वही इन्जीनियर जिसने बाजपेई जी को चिट्ठी लिखकर सड़क के निर्माण में हो रहे घोटालों की जानकारी दी थी. क्या हुआ, मार दिया गया उन्हें. इसके बाद लखीमपुर में इन्डियन आयल कारपोरेशन के अधिकारी मन्जूनाथ, फिर कुछ महीनों पहले सोनावणे को महाराष्ट्र में जिन्दा जला दिया गया और अब मध्य प्रदेश में आईपीएस अधिकारी नरेन्द्र कुमार को ट्रैक्टर से कुचल कर मार दिया गया. एन आर एच एम घोटाले में जाने कितनी हत्यायें हो चुकी हैं. दो दिन पहले खबर आ रही थी कि सपाइयों ने पत्रकारों को कमरे में बन्द कर दिया और आज यह कि सीतापुर में सपा समर्थकों ने निर्दलीय प्रत्याशी के समर्थकों के घर में आग लगा दी. घूम फिर कर जड़ में एक ही चीज है और वह है भ्रष्टाचार. जो सरकारी कर्मचारी इसके खिलाफ है उसकी जिन्दगी खतरे में.  और यही कारण है कि लोगों का मोहभंग होता जा रहा है सही काम करने से, ईमानदारी से काम करने में. कमाऊ विभागों में ईमानदार से न तो जनता खुश होती है और न अधिकारी. क्योंकि लोग भी बड़े समझदार हो चुके हैं, पैसा फेंको-तमाशा देखो पर यकीन करते हैं. घर में व्यवसाय चलायेंगे और मुनाफा कमायेंगे, लेकिन टैक्स देंगे घरेलू का, बिजली का बिल भरेंगे घरेलू का. खुद भी प्रसन्न और इसके बदले में दक्षिणा देकर मामले को निपटा लेंगे, अधिकारी भी प्रसन्न.

फिर क्यों कोई सरकारी अमला अपनी जान हथेली पर रखे, किसके लिये. इन्साफ की बात मत करिये, न्याय की बात मत करिये. जो अपराध करता है, वह सक्षम होता है. उसके पास धन की कमी नहीं, जुगाड़ की कमी नहीं, उसके पास सम्पर्क मौजूद होते हैं. पहले पहल तो इन्वेस्टिगेटिंग आफीसर ही मामले को तोड़ने-मरोड़ने की पूरी क्षमता रखता है, और कहीं विवेचनाधिकारी अपवाद निकल आया तो राजनीतिक दबाव, उच्चाधिकारियों का प्रेशर. इस सबसे उबरने के बाद मुकदमे की लम्बी मियाद. जहां आरोप निर्धारण में ही कई वर्ष लग जाते हों और फिर उसके बाद वकीलों के दांव-पेंच, और इस सब के बाद मुकदमे के लिये कोई समय-सीमा नहीं. दस साल-बीस साल, पता नहीं. एक IPS के स्थान पर IPS ही आयेगा, एक IAS का स्थान IAS ही लेगा, और फिर ऐसा भी नहीं कि सत्ता के दबाव न मानने पर IAS/IPS को नौकरी से निकाल दिया जायेगा, फिर क्या कारण हैं कि प्रशासन के यह लौह स्तम्भ राजनीतिक दबाव के आगे झुक जाते हैं. जिले की पोस्टिंग अच्छी मानी जाती है और मुख्यालय की खराब, जबकि वेतन-भत्ते एक समान ही रहते हैं. फिर?  कुछ न कुछ तो ऐसा है जिसके चलते जिले की पोस्टिंग अच्छी मानी जाती है. यदि एक अधिकारी दबाव न मानकर स्वेच्छा से जिला छोड़ने को तैयार है तो उसकी जगह लेने को दस अधिकारी तैयार खड़े हैं. 

यह सिस्टम अंग्रेजों ने भारतीयों पर शासन करने के लिये बनाया था, जिसमें अधिकारी क्राउन के प्रति समर्पित थे, और इसीलिये  उनका व्यवहार भी राजा की तरह होता था. और वही सिस्टम आज भी कायम है, समर्पण जो होना चाहिये संविधान के प्रति, नियम-कानून के प्रति, वह समर्पण है सत्ता के प्रति. मैं अपवादों की बात नहीं करता क्योंकि अपवाद तो रासायनिक अभिक्रियाओं में भी मिल जाते हैं. जलवा होना चाहिये कानून का, लेकिन होता है वर्दी का-डण्डे का. और स्थिति तभी सुधरेगी जब सरकारी अमला संविधान के प्रति, नियम-कानून के प्रति पूर्णतया समर्पित हो जायेगा. देखिये वह सुबह कब आती है.